भारतीय लोकतंत्र के समसामयिक मुद्दे (Bhartiye Loktantra Ke Samsamyik Mudde) (Reader-3)

सम्पादन : हृदय कान्त दीवान | संजय लोढ़ा | अरुण चतुर्वेदी | मनोज राजगुरु (Hriday Kant Dewan, Sanjay Lodha, Arun Chaturvedi, Manoj Rajguru)

भारतीय लोकतंत्र के समसामयिक मुद्दे (Bhartiye Loktantra Ke Samsamyik Mudde) (Reader-3)

सम्पादन : हृदय कान्त दीवान | संजय लोढ़ा | अरुण चतुर्वेदी | मनोज राजगुरु (Hriday Kant Dewan, Sanjay Lodha, Arun Chaturvedi, Manoj Rajguru)

-20%1020
MRP: ₹1275
  • ISBN 9788131614457
  • Publication Year 2025
  • Pages 254
  • Binding Hardback
  • Sale Territory World

About the Book

आज के संदर्भ में लोकतंत्र की धारणा एक अहम विमर्श के मुद्दे के रूप में उभरी है। हर तरफ यह प्रतीत होता है मानो लोकतंत्र की धारणा को लेकर न सिर्फ विचार स्तर पर वरन् व्यवहार स्तर पर भी अलग-अलग धाराओं में विश्लेषण हो रहा है। यह संकलन ‘भारतीय लोकतंत्र के समसामयिक मुद्दे’ जिनमें भारतीय राजनीति, वंशवाद, दलीय प्रणाली व सामाजिक गठजोड़, सामाजिक बदलाव व राजनैतिक अर्थ, जाति, व्यक्ति बनाम ढ़ांचा, धर्म निरपेक्षता, दलित उभार, समान नागरिक संहिता, चुनाव सुधार, मतदाता व्यवहार जैसे पहलूओं पर केन्द्रित हैं। भारत ने स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् शासन के लिए प्रतिनिध्यात्मक लोकतंत्र को चुना जो कि मात्र आम चुनावी तंत्र तक ही सीमित नहीं है। इसमें अनेकानेक जन समूहों, राजनीतिक दलों, संगठनों, आर्थिक तंत्र से जुड़ी संस्थाओं तथा अन्य संरचनाओं के कार्यकलापों और प्रक्रियाओं के बीच अंतःक्रिया शामिल है। अतः लोकतंत्रीय व्यवस्था का अध्ययन केवल संविधान के उपबन्धों और आधार स्तम्भों तक ही सीमित नहीं है। आज़ादी के बाद से ही भारतीय लोकतंत्र अपने जिन रूपों, प्रक्रियाओं और व्यवस्थाओं के रूप में क्रियान्वित हुआ है, वे सभी विषय इस संकलन में परिलक्षित हैं। खंड एक में आठ लेख स्वातंर्त्योत्तर भारतीय राजनीति के व्यवहार में उभरी विशेषताओं पर हैं। राजनीति के लोकतांत्रिक के सन्दर्भों को सही रूप में रेखांकित करना एक जटिल प्रक्रिया है और इस मायने में खण्ड़ दो के धर्म निरपेक्षता पर केन्द्रित तीन लेख इस पहलू को संवेदनशीलता से रखते हैं। तीसरा खण्ड भारत में मतदाता व्यवहार के अध्ययनों से उभरते मसलों पर है। आखिरी खण्ड़ कुछ मिले-जुले पहलूओं यथा चुनाव सुधारों, समान नागरिक संहिता, दलित उभार के अर्थ पर है। यह कहा जा सकता है कि जिन आशाओं और अपेक्षाओं को लेकर भारतीय राजनीति की परिकल्पना की गई थी, उन पर अब कई तरह के खतरे मँडरा रहे हैं। दिन-प्रतिदिन आहत होते लोकतंत्र और उसके भविष्य की चुनौतियों को लेकर यह पुस्तक पाठकों के लिये कई महत्वपूर्ण सवाल खड़े करने में सहायक है। ये प्रश्न भारतीय लोकतंत्र के लिए समसामयिक हैं और प्रासंगिक भी।


Contents

प्रथम खण्ड भारतीय राजनीति 1 भारतीय राजनीति में वंशवाद-कमल नयन चौबे 2 दलीय प्रणाली और गठजोड-वेफ.वेफ. वैफलाश 3 सामाजिक बदलावों वेफ राजनीतिक अर्थ-अरुण चतुर्वेदी 4 नरसंहारों की जड़ में जमीन है या जाति-रमणीक गुप्ता 5 विस्तृत ढाँचा और कानून: बौनी होती क्षमताएँ-हृदय कान्त दीवान 6 सामाजिक कार्य, राजनीति और जनतंत्रा -संजय मंगला गोपाल 7 भारतीय राजनीति वेफ सामाजिक आधार-अरुण चतुर्वेदी 8 इक्कीसवीं सदी में भारत की चुनौतियाँ: राजनैतिक परिप्रेक्ष्य-अरुण चतुर्वेदी द्वितीय खण्ड धर्म, र्ध्मनिरपेक्षता और लोकतंत्रा 9 सेवुफलरवादी हिन्दुत्व की निर्मिति और राजकीय राष्ट्रवाद वेफ अन्देशे-धीरू भाई शेठ 10 धर्मनिरपेक्षता पर खतरा-अमर्त्य सेन 11 दुधारी तलवार है साम्प्रदायिकता-राजेन्द्र यादव तृतीय खण्ड भारत में मतदाता व्यवहार 12 भारत में मतदान व्यवहार: अध्ययन का इतिहास और भरती चुनौतियाँ -संजय वुफमार 13 चुनावी होड़ की समझ: मुद्दे और विश्लेषणात्मक संरचना - सुहास पलशीकर 14 युवा मतदाता: बंटी हुई प्राथमिकताएँ-संजय वुफमार 15 दलित-आदिवासी वोट बैंक का मिथक-राहुल वर्मा और ज्योति मिश्रा 16 जनप्रतिनिधियों की सीरत, जनमत एवं लोकतंत्रा -संजय लोढ़ा चतुर्थ खण्ड लोकतंत्रा वेफ कतिपय पहलू 17 चुनाव सुधार और भारतीय लोकतंत्रा-रघु ठावुफर 18 समान नागरिक संहिता: सवाल और संभावनाएँ-नरेश गोस्वामी 19 नए मुसलमान प्रवक्ता का इंतजार-अभय वुफमार दुबे 20 दलित उभार वेफ मायने-रजनी कोठारी


About the Author / Editor

दय कान्त दीवान शिक्षा व समाज के अंतर्संबंध के क्षेत्र मे कार्यरत हैं। वे एकलव्य फाउंडेशन (मध्य प्रदेश) के संस्थापक सदस्य थे और विद्या भवन सोसायटी (राजस्थान) और अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय (बेंगलूरु) के साथ काम कर चुके हैं। वे शिक्षा प्रणाली में सामग्री और कार्यक्रमों के विकास और शिक्षा में अनुसंधान में सक्रिय हैं। संजय लोढ़ा, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से राजनीति विज्ञान के सेवानिवृत्त आचार्य। वर्तमान में जयपुर स्थित विकास अध्ययन संस्थान में भारतीय सामाजिक विज्ञान शोध परिषद् के वरिष्ठ फैलो के रूप में संबद्ध। अरुण चतुर्वेदी, वरिष्ठ राजनीति शास्त्री एवं मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर से राजनीति विज्ञान के सेवानिवृत्त आचार्य। मनोज राजगुरु, विद्या भवन रूरल इंस्टीट्यूट, उदयपुर में राजनीति विज्ञान के सह आचार्य।


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